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हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर क्या है भारत-न्यूजीलैंड का प्लान, प्रभासाक्षी के सवाल पर विदेश मंत्रालय के सचिव ने 3 S 1 P फॉर्मूला किया डिकोड

न्यूजीलैंड के मंत्री मार्क मिशेल ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की व्यापक और बड़ी नेतृत्वकारी भूमिका की प्रशंसा की। मार्क भारत यात्रा पर आए न्यूजीलैंड प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं। मार्क ने कहा कि हम इस रिश्ते को बहुत महत्व देते हैं और यही कारण है कि हम भारत के साथ मजबूत संबंध सुनिश्चित करने में इतना समय और ऊर्जा लगाते हैं। उन्होंने न्यूजीलैंड की संस्कृति, शिक्षा, व्यवसाय और उद्यमिता में भारतीय प्रवासियों के ‘‘व्यापक योगदान’’ पर प्रकाश डाला।

भारत और न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने हिंद प्रशांत क्षेत्र में चुनौतीपूर्ण रणनीतिक दृष्टिकोण पर भी चर्चा की है। इस मुद्दे को विस्तार से समझाने बाबत प्रभासाक्षी ने विदेश मंत्रालय की प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल पूछा, जिसका जवाब देते हुए विदेश मंत्रालय के सचिव (पूर्व) जयदीप मजूमदार ने कहा कि न्यूजीलैंड ने इंडो पैसेफिक ओशियन एनिशिएटिव में पहली बार भागीदारी ली है। ये वो लोग भी चाहते हैं और हम लोग भी चाहते हैं कि दोनों देश हिंद महासागर में सिक्योरिटी, सेफ्टी, प्रोस्पेरिटी और स्टेबिलिटी इन सब पर एक साथ काम करे। ये भारत और न्यूजीलैंड दोनों के साझा उद्देश्य हैं। यह है हिंद-प्रशांत के लिए हमारा दृष्टिकोण। हमें खुशी है कि न्यूजीलैंड भी इंडो पैसेफिक ओशियन एनिशिएटिव में शामिल हुआ।

आपको बता दें कि न्यूजीलैंड के मंत्री मार्क मिशेल ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की व्यापक और बड़ी नेतृत्वकारी भूमिका की प्रशंसा की। मार्क भारत यात्रा पर आए न्यूजीलैंड प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा हैं। मार्क ने कहा कि हम इस रिश्ते को बहुत महत्व देते हैं और यही कारण है कि हम भारत के साथ मजबूत संबंध सुनिश्चित करने में इतना समय और ऊर्जा लगाते हैं। उन्होंने न्यूजीलैंड की संस्कृति, शिक्षा, व्यवसाय और उद्यमिता में भारतीय प्रवासियों के ‘‘व्यापक योगदान’’ पर प्रकाश डाला।

मार्क ने प्रवासी समुदाय के प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा कि लगभग 70,000 भारतीय पासपोर्ट धारक हैं और हिंदी देश में पांचवीं सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।

नेताओं के वादों में नहीं है प्रदूषण की समस्या का निदान

दिल्ली में वायु प्रदूषण साल भर एक गंभीर समस्या बना रहता है, जो सर्दियों में और भी खतरनाक हो जाता है। प्रतिकूल मौसम, वाहनों से निकलने वाला धुआं, धान की पराली जलाना, पटाखों का धुआं और अन्य स्थानीय स्रोत हवा की गुणवत्ता को खराब करते हैं।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुदंरलाल बहुगुणा ने कहा था कि प्रकृति हर व्यक्ति की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त प्रदान करती है, लेकिन हर व्यक्ति के लालच को पूरा नहीं करती। बहुगुणा का कहना था कि प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करके हम अपनी अर्थव्यवस्था को किसी भी ऊंचाई पर पहुंचा सकते हैं, तो हम नीचे से अपनी जमीन को खिसका रहे हैं। वर्ल्ड एयर क्वालिटी 2024 की रिपोर्ट बहुगुणा के पर्यावरण को लेकर दिए गए बयान को सही साबित करती नजर आ रही है। इस रिपोर्ट मे सबसे ज्यादा 20 प्रदूषित शहरों में दिल्ली समेत राष्ट्रीय राजधानी परियोजना क्षेत्र के कई शहर भी शामिल हैं। भारत के 13 शहरों की हालत सर्वाधिक खराब है। जिस मेघालय के बारे में हरी-भरी वादियों और खूबसूरत प्राकृतिक नजारों के सुरम्य स्थलों की कल्पना की जाती थी, उसका बर्नीहाट सबसे प्रदूषित शहर है। बर्नीहाट में प्रदूषण का उच्च स्तर स्थानीय कारखानों, जैसे शराब निर्माण, लोहा और इस्पात संयंत्रों से निकलने वाले उत्सर्जन के कारण है। पड़ोसी देशों में पाकिस्तान के चार शहर और चीन का एक शहर भी इस सूची में हैं। स्विट्जरलैंड की एयर क्वालिटी टेक्नोलॉजी कंपनी आईक्यूएयर की वर्ल्ड एयर क्वालिटी की इस रिपोर्ट में भारत 2024 में दुनिया का 5वां सबसे प्रदूषित देश बन गया है, जो 2023 में तीसरे स्थान पर था। देश के 35 प्रतिशत शहरों में पीएम 2.5 का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सीमा 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से 10 गुना अधिक है। दिल्ली में स्थिति और भी गंभीर है, जहां वार्षिक औसत पीएम 2.5 सांद्रता 2023 में 102.4 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से बढ़कर 2024 में 108.3 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हो गई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 2024 में पीएम 2.5 (2.5 माइक्रोन से छोटे प्रदूषण कण) की सांद्रता में 7 प्रतिशत की कमी आई है, जो 2023 में 54.4 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से घटकर 50.6 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर हो गई।

दिल्ली में वायु प्रदूषण साल भर एक गंभीर समस्या बना रहता है, जो सर्दियों में और भी खतरनाक हो जाता है। प्रतिकूल मौसम, वाहनों से निकलने वाला धुआं, धान की पराली जलाना, पटाखों का धुआं और अन्य स्थानीय स्रोत हवा की गुणवत्ता को खराब करते हैं। पीएम 2.5 कण फेफड़ों और रक्तवाहिकाओं में प्रवेश कर सांस की बीमारियों, हृदय रोग और कैंसर का कारण बन सकते हैं। औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों का धुआं और पराली जलाने जैसे स्रोतों पर सख्त नियंत्रण के बिना स्थिति में सुधार मुश्किल है। शीर्ष 20 सबसे प्रदूषित शहरों में भारत से बर्नीहाट (मेघालय), दिल्ली, मुल्लांपुर (पंजाब), फरीदाबाद, गुरुग्राम (हरियाणा), लोनी, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश), गंगानगर, भिवाड़ी और हनुमानगढ़ (राजस्थान) शामिल हैं। यह रिपोर्ट भारत के लिए एक चेतावनी है कि वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए तत्काल और प्रभावी कदम उठाने की जरूरत है।

वायु प्रदूषण भारत में एक बड़ा स्वास्थ्य जोखिम बना हुआ है। लांसेट प्लैनेटरी हेल्थ के रिसर्च के अनुसार वर्ष 2009 से 2019 तक हर साल लगभग 15 लाख लोगों की मौत पीएम 2.5 प्रदूषण के लंबे संपर्क के कारण हुई। रिपोट्र्स बताती हैं कि प्रदूषण के कारण भारतीयों की औसत आयु 5.2 साल कम हो रही है। भारत में बढ़ते प्रदूषण से देश की अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इस प्रदूषण से हर साल 95 अरब डॉलर यानी देश की जीडीपी के लगभग 3 प्रतिशत का नुकसान हो रहा है। वर्ष 2019 में डलबर्ग नाम की ग्लोबल कंसल्टेंसी फर्म ने बताया था कि भारत में प्रदूषण के कारण 95 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। इसका कारण काम की उत्पादकता में कमी, छुट्टियां लेना और समय से पहले मौत है। यह रकम भारत के बजट का लगभग 3 फीसदी और देश के सालाना स्वास्थ्य खर्च का दोगुना है। रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 में भारत में 3.8 अरब कार्य दिवसों का नुकसान हुआ, जिससे 44 अरब डॉलर की चपत लगी। वर्ष 2070 तक भारत के नेट-जीरो के लक्ष्य को पाने के लिए हरेक क्षेत्र से कार्बन उत्सर्जन कम करने की जरूरत है। इस दिशा में बीते वर्षों में सरकारों ने ईवी वाहनों पर सब्सिडी देने की शुरुआत की है, पीएम सूर्य घर योजना, पीएम-कुसुम योजना के भी लाभार्थियों की संख्या में वृद्धि सकारात्मक कदम है। भारत अपने अक्षय ऊर्जा के लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में काम कर रहा है और धीरे-धीरे कोयला आधारित समुदायों को वैकल्पिक रोजगार के साधन करवा रहा है। इन सभी संयुक्त प्रयासों से आने वाले भविष्य में वायु प्रदूषण पर असर पड़ेगा। इसके बावजूद सरकारी प्रयास आधे-अधूरे हैं।

वर्ष 2023 की एक वर्ल्ड बैंक रिपोर्ट में बताया गया कि प्रदूषण का माइक्रो-लेवल असर भारत की अर्थव्यवस्था को मैक्रो-लेवल पर प्रभावित कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, अगर पिछले 25 सालों में भारत ने प्रदूषण को आधा भी कम किया होता, तो 2023 के अंत तक भारत की जीडीपी 4.5 फीसदी ज्यादा होती। लांसेट हेल्थ जर्नल की एक रिपोर्ट में कहा गया कि 2019 में प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़े असर ने देश की जीडीपी को 1.36 फीसदी धीमा कर दिया। अगर प्रदूषण पर कदम नहीं उठाए गए, तो स्थिति और खराब हो सकती है। वर्ष 2023 की डलबर्ग रिपोर्ट ने अनुमान लगाया है कि 2030 तक, जब भारत की औसत उम्र 32 साल होगी, वायु प्रदूषण से मरने वालों की संख्या और बढ़ सकती है, भारत में पर्यावरण की कई समस्या है। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, कचरा, और प्राकृतिक पर्यावरण के प्रदूषण भारत के लिए चुनौतियाँ हैं। पर्यावरण की समस्या की परिस्थिति 1947 से 1995 तक बहुत ही खराब थी। 1995 से 2010 के बीच विश्व बैंक के विशेषज्ञों के अध्ययन के अनुसार, अपने पर्यावरण के मुद्दों को संबोधित करने और अपने पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने में भारत दुनिया में सबसे तेजी से प्रगति कर रहा है। फिर भी, भारत विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के स्तर तक आने में इसी तरह के पर्यावरण की गुणवत्ता तक पहुँचने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है। भारत के लिए एक बड़ी चुनौती और अवसर है। पर्यावरण की समस्या का, बीमारी, स्वास्थ्य के मुद्दों और भारत के लिए लंबे समय तक आजीविका पर प्रभाव का मुख्य कारण हैं।

तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या व आर्थिक विकास और शहरीकरण व औद्योगीकरण में अनियंत्रित वृद्धि, बड़े पैमाने पर औद्योगीक विस्तार तथा तीव्रीकरण, तथा जंगलों का नष्ट होना इत्यादि भारत में पर्यावरण संबंधी समस्याओं के प्रमुख कारण हैं।

यह अनुमान है कि देश की जनसंख्या वर्ष 2018 तक 1.26 अरब तक बढ़ जाएगी। अनुमानित जनसंख्या का संकेत है कि 2050 तक भारत दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होगा और चीन का स्थान दूसरा होगा। दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत परन्तु विश्व की जनसंख्या का 17.5 प्रतिशत भारत में होगी। देश का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव काफी बढ़ गया है। भारत को प्रदूषण कम करने के लिए ठोस और दीर्घकालिक उपायों की जरूरत है। प्रश्न यह भी है कि केंद्र और राज्यों की सरकारों को यह तय करना है कि उदाहरण दूसरे देशों के ज्यादा प्रदूषित होने का गिनाया जाए या अपने देश की हालत को सुधारा जाए। यह निश्चित है जब तक देश के राजनीतिक दल पर्यावरण और प्रदूषण को लेकर राष्ट्रव्यापी नीति बनाने पर सहमत नहीं होंगे तब तक हर साल यह समस्या जन-धन को भारी नुकसान पहुंचाती रहेगी।

– रवि पोत्दार

मुख्यमंत्री स्टालिन का हिन्दी विरोध और भ्रष्टाचार पर चुप्पी

मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को देश को खोखला करने वाले भ्रष्टाचार के कैंसर की परवाह नहीं पर देश की एकता, समरसता और अखंडता के लिए जरूरी हिन्दी भाषा की केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई राष्ट्रीय नीति का जम कर विरोध कर रहे हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक कार्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर कर अंग्रेजी को आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया। इसके बावजूद की पूरे अमरीका में ज्यादातर अंग्रेजी बोली जाती है। ट्रंप के अनुसार, यह आदेश राष्ट्रीय एकता, साझा संस्कृति, और सरकारी कार्यों में समरसता लाने में मदद करेगा। अमरीका जैसे सुपर पावर की एक आधिकारिक भाषा हो सकती है पर भारत में ऐसा करना आसान नहीं है। तमिलनाडु की स्टालिन सरकार सिर्फ क्षुद्र स्वार्थों और वोट बैंक की खातिर हिन्दी का विरोध कर रही हैं। जबकि देश के ज्यादातर राज्यों में हिन्दी न सिर्फ आधिकारिक भाषा है बल्कि सर्वाधिक बोली जाने वाली भी है।

मुख्यमंत्री एम के स्टालिन को देश को खोखला करने वाले भ्रष्टाचार के कैंसर की परवाह नहीं पर देश की एकता, समरसता और अखंडता के लिए जरूरी हिन्दी भाषा की केंद्र सरकार द्वारा लागू की गई राष्ट्रीय नीति का जम कर विरोध कर रहे हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं उससे लगता है कि तमिलनाडु भारत का हिस्सा नहीं होकर कोई अलग देश है। उन्होंने कहा कि सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति को राज्य में लागू नहीं करेगी, चाहे केंद्र सरकार इसके बदले 10,000 करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता ही क्यों न दे। स्टालिन ने यह भी आरोप लगाया कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने समग्र शिक्षा अभियान के तहत मिलने वाले 2,000 करोड़ रुपये की राशि रोकने की धमकी दी थी। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर इसकी शिकायत भी की। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्टालिन के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि तमिलनाडु सरकार राजनीतिक लाभ के लिए हिंदी थोपने का फर्जी नैरेटिव बना रही है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति का जितना विरोध तमिलनाडु की स्टालिन सरकार कर रही है, उतना देश के किसी अन्य राज्य ने नहीं किया। यहां तक की बात-बात पर केंद्र की भाजपा सरकार से टकराने को तैयार रहने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस मुद्दे पर मुखर नहीं दिखी। विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने 1948-49 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाले आयोग ने हिंदी को केंद्र सरकार के कामकाज की भाषा बनाने की सिफारिश की थी। आयोग की सिफारिश थी कि सरकार के प्रशासनिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक कामकाज अंग्रेजी में किए जाएं। इस आयोग ने कहा था कि प्रदेशों का सरकारी कामकाज क्षेत्रीय भाषाओं में हो। राधाकृष्णन आयोग की यह सिफारिश ही आगे चलकर स्कूली शिक्षा के लिए त्रिभाषा फार्मूला के नाम से मशहूर हुआ। इस सिफारिश को राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) ने 1964-66 में स्वीकार किया। इंदिरा गांधी की सरकार की ओर से पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में इसे शामिल किया गया। सरकार ने प्रस्तावित किया कि माध्यमिक स्तर तक हिंदी भाषी राज्यों में छात्र हिंदी और अंग्रेजी के अलावा दक्षिणी भाषाओं में से एक और गैर-हिंदी भाषी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी के साथ हिंदी सीखें।

राजीव गांधी सरकार में 1986 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और नरेंद्र मोदी सरकार में 2020 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसी फार्मूले को रखा गया। लेकिन इसके क्रियान्वयन में लचीलापन लाया गया। पिछली राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विपरीत 2020 में बनी नीति में हिंदी का कोई उल्लेख नहीं है। इसमें कहा गया है कि बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाएं राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से स्वयं छात्रों की पसंद होंगी, बशर्ते कि तीन भाषाओं में से कम से कम दो भारत की मूल भाषाएं हों।

यह पहला मौका नहीं है जब तमिलनाडु में हिंदी विरोध की आड़ में राजनीतिक की जा रही है। हिन्दी का विरोध करना तमिलनाडु में वोट बैंक साधने का साधन बन चुका है। स्टालिन की पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) ही नहीं इससे पहले सत्ता में रहे अन्य क्षेत्रीय दल भी वोटों की खातिर हिंदी विरोध के मुद्दे् को भुनाते रहे हैं। तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलनों का करीब सौ साल पुराना है। केरल और कर्नाटक के विपरीत तमिलनाडु में दो भाषा फार्मूले का पालन किया जाता है। इसके तहत छात्रों को केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है। साल 1937 में मद्रास में सी राजगोपालाचारी की सरकार ने माध्यमिक विद्यालयों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसका जस्टिस पार्टी ने विरोध किया था।

हिंदी के विरोध में हुए आंदोलन में थलामुथु और नटराजन नाम के दो युवकों की जान चली गई थी। बाद में वो हिंदी विरोधी आंदोलन के प्रतीक बन गए। इस विरोध के आगे झुकते हुए राजाजी को इस्तीफा देना पड़ा था। वहीं 1960 के दशक में जब देश में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने की समय सीमा आई तो तमिलनाडु में हिंसक विरोध प्रदर्शन होने लगे। हिंदी विरोधी इस आंदोलन में पुलिस कार्रवाई और आत्मदाह की घटनाओं में करीब 70 लोगों की जान चली गई थी। मौजूदा स्टालिन सरकार हिन्दी का जिस कदर विरोध कर रही है, भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कभी उतनी मुखर नहीं रही है। स्टालिन सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं। उच्च शिक्षा मंत्री के पोनमुडी और उनकी पत्नी पी विसलाची को आय से अधिक संपत्ति मामले में दोषी ठहराया गया है। जल संसाधन मंत्री रईमुरुगन का नाम अक्सर तमिलनाडु में अवैध रेत खनन से जुड़ा रहा है। ग्रामीण विकास मंत्री आई पेरियासामी चेन्नई में एक भूखंड के अवैध आवंटन का आरोप झेल रहे हैं।

आयकर विभाग ने तमिलनाडु के लोक निर्माण और राजमार्ग मंत्री ईवी वेलु से जुड़े कई परिसरों पर छापेमारी की थी। डीएमके नेता से जुड़ी संपत्तियों से 29 करोड़ रुपये नकद जब्त किए। आश्चर्य की बात यह है कि मंत्रियों पर लगे संगीन आरोपों के बावजूद मुख्यमंत्री स्टालिन ने एक बार भी भ्रष्टाचार के खिलाफ बयान नहीं दिया, जबकि हिंदी का विरोध खूब कर रहे हैं। यह निश्चित है कि ऐसे विरोध देश की एकता-अखंडता के लिए नुकसानदायक हैं। राजनीतिक दल जब तक अपने निहित क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठ कर देश हित के बारे में नहीं सोचेंगे तब तक भाषा और दूसरे ऐसे भावनात्मक मुद्दे वोट बटोरने का जरिया बन रहेंगे।

– रवी पोतदार

Ram Mandir को अब नहीं मिलेगा नया मुख्य पुजारी, सत्येंद्र दास के निधन के बाद ट्रस्ट ने लिया फैसला

अब कोई मुख्य पुजारी नहीं होगा क्योंकि दास की उम्र और सम्मान का कोई व्यक्ति नहीं है, उन्होंने कहा कि कोई भी उनके जितना विद्वान नहीं है। राय ने रविवार को कहा, “हमने आचार्य सत्येंद्र दास से 6 महीने पहले पूछा था; अब कोई मुख्य पुजारी नहीं होगा। सत्येंद्र दास की उम्र और सम्मान का कोई व्यक्ति नहीं है।

अयोध्या के श्री राम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंद्र दास का निधन हो चुका है। इनके निधन के कई दिनों के बाद अयोध्या में अब कई मुख्य पुजारी नहीं होगा। ये जानकारी श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र सचिव चंपत राय ने दी है। चंपत राय ने आचार्य सत्येंद्र दास के निधन के बाद नए मुख्य पुजारी की नियुक्ति पर पूछे गए सवाल के जवाब में यह टिप्पणी की।

राय ने कहा कि अब कोई मुख्य पुजारी नहीं होगा क्योंकि दास की उम्र और सम्मान का कोई व्यक्ति नहीं है, उन्होंने कहा कि कोई भी उनके जितना विद्वान नहीं है। राय ने रविवार को कहा, “हमने आचार्य सत्येंद्र दास से 6 महीने पहले पूछा था; अब कोई मुख्य पुजारी नहीं होगा। सत्येंद्र दास की उम्र और सम्मान का कोई व्यक्ति नहीं है; इतने लंबे समय तक कोई और हनुमानगढ़ी का महंत नहीं रहा है।” उन्होंने कहा, “वे 1993 से सेवा कर रहे थे। वे 100 रुपये मासिक वेतन लेते थे। अब, हर कोई युवा और नया है; कोई भी उनके जितना विद्वान नहीं है। अब, किसी को मुख्य पुजारी के रूप में संबोधित करना अतिशयोक्ति होगी।

आचार्य सत्येंद्र दास कौन थे?

दास एक हिंदू महंत और अयोध्या राम जन्मभूमि मंदिर के मुख्य पुजारी थे। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस से पहले भी वे राम मंदिर के मुख्य पुजारी थे। वह बांग्लादेश में अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण चेतना सोसायटी (इस्कॉन) पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली याचिका की निंदा करने वाले पहले हिंदू पुजारियों में से एक थे। आचार्य सत्येंद्र दास को अयोध्या के सबसे सुलभ संतों में से एक माना जाता था और अक्सर मीडियाकर्मी अयोध्या और राम मंदिर से संबंधित घटनाक्रमों के बारे में जानकारी के लिए उनसे संपर्क करते थे।

इस साल 12 फरवरी को 83 साल की उम्र में लखनऊ के संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एसजीपीजीआईएमएस) में उनका निधन हो गया था। ब्रेन स्ट्रोक के बाद उन्हें 3 फरवरी को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अस्पताल ने कहा, “अयोध्या राम मंदिर के मुख्य पुजारी सत्येंद्र दास जी ने आज अंतिम सांस ली। उन्हें 3 फरवरी को गंभीर हालत में स्ट्रोक के बाद न्यूरोलॉजी वार्ड के एचडीयू (हाई डिपेंडेंसी यूनिट) में भर्ती कराया गया था।”

आतंकवाद-कट्टरपंथ के खिलाफ साझा प्रयास, निवेश के अवसर को बढ़ावा, भारत-न्यूजीलैंड ने साइन किए कई अहम समझौते

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कगा कि आज हमने अपने द्विपक्षीय संबंधों के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की। हमने अपनी रक्षा और सुरक्षा साझेदारी को मजबूत और संस्थागत बनाने का निर्णय लिया है। संयुक्त अभ्यास, प्रशिक्षण के साथ-साथ रक्षा उद्योग में आपसी सहयोग के लिए रोडमैप बनाया जाएगा।

प्रधानमंत्री मोदी और न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन ने संयुक्त प्रेस वक्तव्य दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि दोनों देशों के बीच पारस्परिक रूप से लाभकारी मुक्त व्यापार समझौते पर बातचीत शुरू करने का निर्णय लिया गया है। इससे आपसी व्यापार और निवेश की संभावनाओं को और बढ़ावा मिलेगा। डेयरी, खाद्य प्रसंस्करण और फार्मा जैसे क्षेत्रों में आपसी सहयोग और निवेश को बढ़ावा दिया जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी और न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन ने संयुक्त प्रेस वक्तव्य दिया। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि अवैध प्रवास के मुद्दे से निपटने के लिए भारत और न्यूजीलैंड द्वारा एक समझौता तैयार करने के लिए काम किया जाएगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कगा कि आज हमने अपने द्विपक्षीय संबंधों के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा की। हमने अपनी रक्षा और सुरक्षा साझेदारी को मजबूत और संस्थागत बनाने का निर्णय लिया है। संयुक्त अभ्यास, प्रशिक्षण के साथ-साथ रक्षा उद्योग में आपसी सहयोग के लिए रोडमैप बनाया जाएगा। हमारी नौसेनाएं हिंद महासागर में समुद्री सुरक्षा के लिए संयुक्त टास्कफोर्स 150 में मिलकर काम कर रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी और न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन ने संयुक्त प्रेस वक्तव्य दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मैं प्रधानमंत्री लक्सन और उनके प्रतिनिधिमंडल का भारत में स्वागत करता हूं। प्रधानमंत्री लक्सन का भारत के साथ पुराना नाता रहा है… इस साल के रायसीना डायलॉग के मुख्य अतिथि के रूप में उनके जैसे युवा, ऊर्जावान, प्रतिभाशाली नेता का होना हमारे लिए खुशी की बात है। इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन के बीच प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता की।

बीजेपी के लिये कितना फायदेबंद होगा महिला आरक्षण का विषय

पांच राज्य और अगले साल होने वाले आम चुनाव से पहले केंद्र की मोदी सरकार ने महिलाओं को लेकर बड़ा दांव खेला है। सरकार ने संसद में महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा में 33% आरक्षण देने वाला नारी शक्ति वंदन अधिनियम को पेश कर दिया है। लोकसभा में भारी बहुमत से पास हो चुका है। वर्तमान परिस्थितियों को देखें तो राज्यसभा में भी इस विधेयक को किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा। हालांकि, यह लागू कब होगा इसको लेकर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। विपक्षी दलों का कहना है कि इसे लागू करने के लिए परिसीमन और जनगणना का इंतजार क्यों करना? हालांकि, कहीं ना कहीं पिछले 27 सालों से प्रतिक्षित महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पास कर मोदी सरकार ने बड़ा दांव खेल दिया है जिसका असर आने वाले विधानसभा चुनाव पर भी होगा। इसे 2024 चुनाव से पहले मोदी का मास्टर स्ट्रोक भी बताया जा रहा है। 

जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उनमें मध्य प्रदेश भी शामिल हैं। वर्तमान में देखें तो मध्य प्रदेश में महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश भाजपा और कांग्रेस दोनों ओर से की जा रही है। कांग्रेस ने जहां पहले महिलाओं पर फोकस करते हुए 500 रुपये में गैस सिलेंडर और हर महीने 1500 रुपये देने की गारंटी कार्ड चल दी। तो वहीं अब भाजपा इसके बदले 450 रुपए में गैस सिलेंडर और हर महीने लाडली बहन योजना के तहत फिलहाल 1250 रुपए देने की घोषणा कर दी। लाडली बहन योजना को अमल में लाया जा चुका है। महिलाओं के खाते में पैसे ट्रांसफर किए जा रहे हैं। शिवराज सिंह चौहान की ओर से दावा किया जा रहा है कि आने वाले वक्त में इसे 3000 तक किया जा सकता है। 

वर्तमान स्थिति

कुल मिलाकर देखें तो इससे साफ जाहिर होता है कि मध्य प्रदेश की राजनीति में महिलाएं कितना महत्व रखती हैं। हालांकि, आंकड़ों को देखेंगे तो आश्चर्य होगा। मध्य प्रदेश में कुल मतदाताओं में महिला वोटर्स की संख्या 48.36% है। लेकिन 230 सदस्यों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा में महिला विधायकों की संख्या 10% से भी कम है। 2018 के चुनाव में 21 महिला विधायक चुनी गई थीं। इनमें से 11 भाजपा से, 10 कांग्रेस से और एक बहुजन समाज पार्टी से थीं। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने 10 फीसदी, कांग्रेस ने 12 फीसदी महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। 2008 में, भाजपा ने 23 महिलाओं को विधानसभा टिकट दिया, जिनमें से 15 निर्वाचित हुईं। 2013 में 23 महिलाओं को टिकट मिला, 17 जीतीं। लेकिन 2018 में 24 में से केवल 11 महिलाएं चुनी गईं। कांग्रेस ने 2008 में 28 महिलाओं को टिकट दिया, जिनमें से छह जीतीं। 2013 में 23 महिला उम्मीदवारों में से केवल छह ने जीत हासिल की थी। 2018 में पार्टी ने 28 महिलाओं को टिकट दिया, जिनमें से नौ विधानसभा पहुंचीं।

भाजपा का रूख

महिला आरक्षण विधेयक को लेकर शिवराज ने कहा कि आज देश की लोकतांत्रिक यात्रा में महत्वपूर्ण पड़ाव आया है। नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व में लोकसभा में भारी बहुमत के साथ ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ पारित हुआ है। नीति निर्धारण में महिलाओं की भूमिका के विस्तारीकरण एवं उन्हें शक्ति संपन्न बनाने की दिशा में यह अधिनियम महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करेगा। उन्होंने कहा कि मोदी के नेतृत्‍व में महिला सशक्तिकरण का संकल्प सिद्ध हो रहा है। ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ लोकतंत्र में महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने के साथ ही उन्हें सशक्त और समृद्ध भी बनाएगा। इस ऐतिहासिक निर्णय के लिए आदरणीय प्रधानमंत्री जी का हृदय से आभार व्‍यक्‍त करता हूँ। शिवराज ने एक सभा में कहा कि महिलाओं को भी आराम की जिंदगी जीने का अधिकार है। महिलाओं को भी इस धरती के संसाधनों पर बराबर का अधिकार है। अब लोकसभा और विधानसभा की 33% सीटों पर महिलाएं चुनाव लड़ सकेंगी। ये जीवन बदलने का अभियान है। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह महिला सशक्तिकरण का एक नया अध्याय है। 

श्रेय लेने की होड़ 

भाजपा और कांग्रेस दोनों महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन कर रहे हैं और इसका श्रेय लेने की होड़ कर रहे हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता शोभा ओझा ने कहा कि भाजपा ने 2014 के अपने घोषणापत्र में कहा था कि वे महिला आरक्षण विधेयक लागू करेंगे लेकिन ऐसा करने में उन्हें नौ साल लग गए। उन्होंने कहा, “अब वे चुनाव के कारण यह विधेयक ला रहे हैं। वे जानते हैं कि मतदाता महंगाई, भ्रष्टाचार के कारण नाराज हैं। मैं इस विधेयक के लिए दिवंगत राजीव गांधी जी को धन्यवाद देना चाहती हूं, क्योंकि यह उनका विचार था।” वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व मंत्री अलका जैन ने इसका सारा श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री और पार्टी के प्रतीक अटल बिहारी वाजपेयी को दिया। शीर्ष पद पर उनके कार्यकाल के दौरान भी महिला आरक्षण विधेयक को लेकर प्रयास किये गये लेकिन वह सफल नहीं हो पाये। उन्होंने कहा, कटनी में चार विधानसभा क्षेत्र हैं, लेकिन एक भी महिला विधायक नहीं है। 

खैर जब यह अमल में आ जाएगा, उसके बाद मध्य प्रदेश विधानसभा में वर्तमान की स्थिति में 76 महिलाएं बैठ सकेंगी। हालांकि, सवाल यह बना हुआ है कि यह कब तक लागू हो सकेगा। लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा आगामी चुनाव में इस मुद्दे को महिलाओं के बीच जबरदस्त तरीके से उठाएगी और सियासी फायदा लेने की कोशिश करेगी। जाहिर सी बात है कि यह बिल 27 सालों से पेंडिंग में था। लेकिन किसी ने इस तरीके की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। ऐसे में भाजपा इसको लेकर मोदी सरकार की वाहवाही जरूर करेगी। लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि उसे जनता का कितना साथ मिल पाता है। यही तो प्रजातंत्र है। 

सरकारी बजट पर ‘रेवड़ी कल्चर’ का बढ़ता साया स्थिति को खतरनाक बना रहा है

सरकारों के बजट भी अब मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त उपहार बांटने, तोहफों, लुभावनी घोषणाएं एवं योजनाओं की बरसात करने का माध्यम बनते जा रहे हैं। बजट में भी ‘रेवड़ी कल्चर’ का स्पष्ट प्रचलन लगातार बढ़ रहा है, खासकर तब जब उन राज्यों में चुनाव नजदीक हों। ‘फ्रीबीज’ या मुफ्त उपहार न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में वोट बटोरने का हथियार हैं। यह एक राजनीतिक विसंगति एवं विडम्बना है जिसे कल्याणकारी योजना का नाम देकर सत्ताधारी पार्टी राजनीतिक लाभ की रोटियां सेंकती है। यह तय करना कोई मुश्किल काम नहीं है कि कौन-सी कल्याणकारी योजना है और कौन-सी मुफ्तखोरी यानी ‘रेवड़ी कल्चर’ की, परंतु राजनीतिक मजबूरी इसे चुनौतीपूर्ण बना देती है। भारत जैसे विकासशील देश की विभिन्न राज्यों की सरकारें सरकारी बजट के माध्यम से आम-जनता को प्रभावित करने का हरसंभव प्रयास करती है। छत्तीसगढ़ सरकार का बजट इसका ताजा उदाहरण है। उसने बजट में प्रावधान किया है कि युवाओं को ढाई हजार रुपए मासिक बेरोजगारी भत्ता देगी। इसके अलावा आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं, होमगार्डों, ग्राम कोटवारों आदि के मानदेय में भी वृद्धि की घोषणा की है। क्या सरकार को रोजगार एवं विकास पर ध्यान नहीं देना चाहिए? 

बात केवल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी या भाजपा की ही नहीं है, बल्कि हर राजनीतिक दल सरकारी खजानों का उपयोग आम मतदाता को अपने पक्ष में करने के लिये करता है। छत्तीसगढ़ सरकार की ही तरह एक दिन पहले मध्य प्रदेश सरकार ने भी अपने बजट में लाड़ली बहना योजना शुरू की, जिसके तहत ऐसी महिलाओं को एक हजार रुपए प्रति माह सरकारी सहायता देने की घोषणा की गई, जो आयकर के दायरे में नहीं आतीं और जिनके परिवार की आमदनी ढाई लाख रुपए वार्षिक से कम है। पंजाब विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को वजीफा देने की घोषणा की थी। राजस्थान सरकार तो पहले ही ऐसी लुभावनी योजनाओं की बरसात कर चुकी है। गौरतलब है कि पंजाब के अलावा इन तीनों राज्यों में इस साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं और सभी राजनीतिक दल उसकी तैयारी में जुटने लगे हैं। इन सरकारों की घोषणाओं में स्पष्ट रूप से चुनावी मकसद देखा जा सकता है। हर कल्याणकारी सरकार का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को आर्थिक रूप से सक्षम बनने के अवसर उपलब्ध कराए। लेकिन सरकार चुनाव के समय ही ऐसी लुभावनी योजनाएं लेकर क्यों आती है?

सभी राजनीतिक दलों की बड़ी लुभावनी घोषणाएं होती हैं, घोषणा पत्र होते हैं- जनता को पांच वर्षों में अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सड़कें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी, हर गांव तक बिजली पहुंचाई जायेगी, शिक्षा-चिकित्सा निःशुल्क होगी। ये राजनीतिक घोषणाएं पांच साल में अधूरी ही रहती है, फिर चुनाव की आहट के साथ रेवड़ियां बांटने का प्रयत्न बजट के माध्यम से किया जाता है, कितने ही पंचवर्षीय चुनाव हो गये और कितनी ही पंचवर्षीय योजनाएं पूरी हो गईं पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। खुशहाल देश और समाज वही माना जाता है, जहां लोग निजी उद्यम से अपने गुजर-बसर संबंधी सुविधाएं जुटाते हैं। खैरात पर जीने वाला समाज विपन्न ही माना जाता है। लोग भी यही चाहते हैं कि उन्हें कुछ करने को काम मिले। इसी से उन्हें संतोष मिलता है। मगर हकीकत यह है कि देश में नौकरियों की जगहें और रोजगार के नए अवसर लगातार कम होते गए हैं। सरकारों की तरफ से ऐसे अवसरों को बढ़ाने के व्यावहारिक प्रयास न होने की वजह देश एवं प्रांत समग्र एवं चहुंमुखी विकास की ओर अग्रसर नहीं हो पाते हैं। सरकारें अपनी इस नाकामी एवं कमजोरी पर पर्दा डालने के लिए मुफ्त सहायता देने की परंपरा विकसित कर ली है। चाहे वह मुफ्त राशन हो, बेरोजगारी भत्ता हो या फिर महिलाओं को वजीफा हो, मुक्त बिजली-पानी हो, मुफ्त चिकित्सा हो, मुफ्त यात्रा हो- इस मामले में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार पीछे नहीं है। अब तो इस मामले में जैसे एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़-सी नजर आने लगी है। सवाल है कि सरकारें इस पहलू पर कब विचार करेंगी कि हर हाथ को काम मिले, रोजगार बढ़े, स्वरोजगार की स्थितियां बने। लोगों के हाथ में काम होगा, तो उन्हें इस तरह सरकारों की मुफ्त की योजनाओं के लिए हाथ परसारने पर मजबूर ही नहीं होना पड़ेगा। जब लोगों के हाथ में काम होता है, तो न सिर्फ उनकी पारिवारिक स्थिति सुधरती है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी बल मिलता है। लेकिन लगता है सरकारें आम जनता को समर्थ बनाना ही नहीं चाहती, गरीब को गरीब बनाये रखने में ही उनका राजनीतिक हित है, तभी वे रेवड़ियां बांटने का चुनावी लाभ उठा सकती है।

भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों अपने चुनावी एवं गैर-चुनावी संबोधनों में मुफ्त संस्कृति को लेकर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि यह आधारभूत संरचना के विकास में अवरोध है। इसे ‘शॉर्टकट’ बताकर इसके खतरे से आगाह किया और मुफ्त संस्कृति पर बहस को आगे बढ़ाया। उच्चतम न्यायालय में भी इस सम्बंध में जनहित याचिकाएं की सुनवाई करते हुए कहा था कि, ‘इस तरह से फ्रीबीज बांटना सरकार के लिए ऐसी परिस्थिति खड़ी कर सकता है कि जहां सरकारी खजाना खाली होने की वजह से जनता को आम सुविधाओं से वंचित होना पड़े। चुनाव के समय और सरकार में आने के बाद गरीब कल्याण के नाम पर रेवड़ी बांटने का काम सरकार और राजनीतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार करते हैं। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक गरीब कल्याण के नाम पर सरकारें अपनी योजनाओं का ढिंढोरा पीटती हैं। गरीब कल्याण की भावना के साथ काम करने वाली सरकार गरीब और जरूरतमंदों को सब्सिडी के साथ अनेक सुविधाएं उपलब्ध कराती है इसमें सरकारी अस्पताल में सस्ता इलाज, स्कूलों में मुफ्त शिक्षा और मिड डे मील के साथ अन्य कई सुविधाएं शामिल हैं। सरकारों ने नौकरी और रोजगार सृजन की तरफ से ध्यान भटकाने के लिए इस तरह की योजनाओं को सबसे आसान रास्ता समझ लिया है। इस रास्ते पर वे कितने समय तक चल सकेंगी, इसका ठीक-ठीक आकलन शायद ही किसी ने किया हो। अब तो ऐसा लगने लगा है कि जैसे सरकारों में रोजगार सृजन की इच्छाशक्ति भी नहीं बची है।

बजट की लोक-लुभावन घोषणाओं के आर्थिक अर्थों में मुफ्त के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की जरूरत है। सब्सिडी और मुफ्त में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी जरूरतमंदों को मिलने वाले उचित और एक वर्ग विशेष को दिए जाने वाला लाभ है, जबकि मुफ्तखोरी काफी अलग है यह आम वोटरों को लुभाने का जरिया है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यह पैसा करदाताओं का है, जिसका उपयोग पार्टियां अपने निजी प्रचार और वोटों की राजनीति के लिए कर रही हैं। रेवड़ी संस्कृति यानी सरकारी खजाने से भारी-भरकम चुनावी वादों की पूर्ति। कुछ लोग इसे जनता को मुफ्तखोरी की लत लगाने का नाम देते हैं। सार्वजनिक विमर्श में इसे फ्रीबीज या कहें कि मुफ्त उपहार की पेशकश कहा जाता है।

सरकारी बजट को आम जनता के विकास का माध्यम बनाना चाहिए न कि उन्हें मुफ्त या खैरात बांट कर अकर्मण्य बनाया जाये। जरूरत मुक्त की संस्कृति को नियंत्रित करने की है। सत्ताधारी राजनीतिक दल राजनैतिक लाभ की रोटियां सेंकने की बजाय बेहतर प्रभावी आर्थिक नीतियां बनाएं और उसे लाभार्थियों तक सही तरीके से पहुंचाएं तो इस प्रकार की मुफ्त घोषणाओं की जरूरत नहीं रहेगी। चुनाव के समय सत्ताधारी पार्टियों को अपने बजट में उन आर्थिक नीतियों या विकास मॉडलों को विस्तार से लागू करना चाहिए जो वास्तविक रूप में उस प्रांत की जरूरत हैं। उन्हें जनता के सामने उन नीतियों को स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। समाज की, वास्तविक विकास और सुशासन सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है, इसलिए लोगों को इस तरह के मुफ्त उपहार देने की एक सीमा होना जरूरी है। आज जिस तरह से सरकारें गरीबों के हित के नाम पर मुफ्त की स्कीम लांच कर रही है वास्तव में वह इससे अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति कर रही है। इस तरह देश के गरीबों में मुफ्तखोरी की आदत डालना सही नहीं है। मुफ्तखोरी की राजनीति से लोकतंत्र को खतरा हो सकता है और इससे देश का आर्थिक बजट लड़खड़ाने का भी खतरा है। इसके साथ इस सबसे निष्क्रियता एवं अकर्मण्यता को बल मिलेगा अगर मुफ्त का राशन, बेरोजगारी एवं महिला भत्ता मिलेगा तो लाभार्थी काम करना बंद कर देंगे। हिंदुस्तान में लोगों को बहुत कम में जीवन निर्वहन करने की आदत है ऐसे में जब मुफ्त राशन, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा मिलेगा तो काम क्यों करेंगे?

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)